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Showing posts from 2015
.हर शख्स सलामती से लौटे अपने घरो को मौला इंतज़ार करते है आँगन, घर में रहने वालो का कोई किसी से बेवक्त बिछड़ ना जाए रहम करना रिश्ते हिफाज़त में रखना जमीं पे रहने वालो का अगर आम बोने से आम मिलते हैं, और नीम बोने से नीम, आओ लगाकर देखें फसल दुआ की न कोई भूखा रहे, और न कोई यतीम बात करने से, ही बात बनती है... बात न करने से, बाते बनती हैं... तारीफ हर कोई करे_____ ये कभी चाहा ही नहीं । कोई बुराई न करे_____ ये कोशिश जरुर की  बदलने को हम भी बदल जाते । फिर अपने आप को क्या मुंह दिखाते ।। ना किस्सों से और ना किश्तों से... ये ज़िन्दगी बनती है कुछ रिश्तों से. काश मेरा घर तेरे घर के करीब होता,बात करना न सही , देखना तो नसीब होता..

बूंद सी ख्वाहिश

बूंद सी ख्वाहिश थी , सागर जैसी शीद्दत से चाही थी...... ..........पल भर खुद के जिन्दगी की मिलकियत की गुज़ारिश थी... ...........न कोई गुनाह करना था ,न किसी का दिल दुखाना था....... ..........जिन्दगी की अहमियत समझ बेमकसद गुज़ार देना उम्र.. ......... मेरे लिए उसूलो में रहने की बस इतनी सी तो कीमत थी.... …………खुला आसमा देख भी समेट ली सहम के पाखे मैंने हमेशा ......... एक बार उड़ान भर के देखू मैं भी इतनी छोटी सी हसरत थी..... ..........हर दायरा, इज्ज़त , हद ,तालीम, लिहाज मुझे मंज़ूर ख़ामोशी से.......... ..........लेकिन झुका सर रहे मेरा होता है सलीका ये कैसी नसीहत थी........ ......... मेरे हर कदम पे .दुनिया की नजरो से पहले खुद को देखू मैं....... ......... मेरे मौला तेरी दुनिया में हमारे लिए कैसी ये दहशत थी... ............कुछ मुनासिब से सवाल पूछ लू ,कुछ लाज़मी से जवाब दे दू..... ...........क्या ये मेरे घर के बड़ो की फजीहत थी... .........कोई कसूर तो नही ,कोई तौहीन तो नहीं इजाजत मांगना.... ......... मैं भी हु जिन्दा बड़ी मामूली सी मेरी भी चाहत थी... ...........मेरे,खवाब, वक़्त,.इरादे..कुछ भी नही मेरी हद में.....

श्राध्द्ध.

 माँ की बूढी आँखों के सामने बेरुखी से गुजर जाते थे कमरे से.... .. ...पास बैठ उस उदास थके काँधे पे बाँहे प्यार से कभी डाला नही.......  .... . .सूरज को देख जल का पितरो को अर्पण कर रहे है जो आज ........ .... पानी ले ना बैठे करीब, मुँह में प्यार से डाला कभी निवाला नही......... .. मिलो का सफर कर उनके नाम आये गया में अब पिंड दान करने ........ .. घुमने गए अकेले सदा कभी साथ उनको चलने कोई पूछने वाला नही........ ... पंडितो को मनुहार जिद से जो जिमा रहे हो जमाने के आगे आज ........... .. माँ बाप की सेवा तारती जितना कोई पितृपक्ष या कोई शिवाला नही

अटल बिहारी वाजपेयी

पेड़ के ऊपर चढ़ा आदमी ऊंचा दिखाई देता है। जड़ में खड़ा आदमी नीचा दिखाई देता है। आदमी न ऊंचा होता है, न नीचा होता है, न बड़ा होता है, न छोटा होता है। आदमी सिर्फ आदमी होता है। पता नहीं, इस सीधे-सपाट सत्य को दुनिया क्यों नहीं जानती है? और अगर जानती है, तो मन से क्यों नहीं मानती इससे फर्क नहीं पड़ता कि आदमी कहां खड़ा है? पथ पर या रथ पर? तीर पर या प्राचीर पर? फर्क इससे पड़ता है कि जहां खड़ा है, या जहां उसे खड़ा होना पड़ा है, वहां उसका धरातल क्या है? हिमालय की चोटी पर पहुंच, एवरेस्ट-विजय की पताका फहरा, कोई विजेता यदि ईर्ष्या से दग्ध अपने साथी से विश्वासघात करे, तो उसका क्या अपराध इसलिए क्षम्य हो जाएगा कि वह एवरेस्ट की ऊंचाई पर हुआ था? नहीं, अपराध अपराध ही रहेगा, हिमालय की सारी धवलता उस कालिमा को नहीं ढ़क सकती। कपड़ों की दुधिया सफेदी जैसे मन की मलिनता को नहीं छिपा सकती। किसी संत कवि ने कहा है कि मनुष्य के ऊपर कोई नहीं होता, मुझे लगता है कि मनुष्य के ऊपर उसका मन होता है। छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता, टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता। इसीलिए तो भगवान कृष्ण को शस्त्रों से सज्ज, रथ पर चढ़...
दिल में ना हो ज़ुर्रत तो मोहब्बत नहीं मिलती ख़ैरात में इतनी बङी दौलत नहीं मिलती कुछ लोग यूँही शहर में हमसे भी ख़फा हैं हर एक से अपनी भी तबीयत नहीं मिलती देखा था जिसे मैंने कोई और था शायद वो कौन है जिससे तेरी सूरत नहीं मिलती हंसते हुए चेहरों से है बाज़ार कीज़ीनत रोने को यहाँ वैसे भी फुरसत नहीं मिलती निदा फाजली
शायर निदा फाजली हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा 

जितना कम सामान रहेगा उतना सफ़र आसान रहेगा

अब के सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई आप मत पूछिए क्या हम पे सफ़र में गुज़री था लुटेरों का जहाँ गाँव, वहीं रात हुई हर सुबह शाम की शरारत है हर ख़ुशी अश्क़ की तिज़ारत है मुझसे न पूछो अर्थ तुम यूँ जीवन का ज़िन्दग़ी मौत की इबारत है अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए जिसमें इन्सान को इन्सान बनाया जाए जिसकी ख़ुश्बू से महक जाए घर पड़ोसी का फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए आग बहती यहाँ गंगा में, ज़मज़म में भी कोई बतलाए कहाँ जा के नहाया जाए मेरा मक़सद है ये महफ़िल रहे रौशन यूँ ही ख़ून चाहे मेरा दीपों में जलाया जाए मेरे दु:ख-दर्द का तुम पर हो असर कुछ ऐसा मैं रहूँ भूखा तो तुमसे भी न खाया जाए जितना कम सामान रहेगा उतना सफ़र आसान रहेगा जितनी भारी गठरी होगी उतना तू हैरान रहेगा उससे मिलना नामुमक़िन है जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगा हाथ मिलें और दिल न मिलें ऐसे में नुक़सान रहेगा जब तक मन्दिर और मस्जिद हैं मुश्क़िल में इन्सान रहेगा

तू परेशान है, तू परेशान न हो इन ख़ुदाओं की ख़ुदाई नहीं जाने वाली

देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली ये ख़तरनाक सचाई नहीं जाने वाली  कितना अच्छा है कि साँसों की हवा लगती है आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली  एक तालाब-सी भर जाती है हर बारिश में मैं समझता हूँ ये खाई नहीं जाने वाली  चीख़ निकली तो है होंठों से मगर मद्धम है बंद कमरों को सुनाई नहीं जाने वाली  तू परेशान है, तू परेशान न हो इन ख़ुदाओं की ख़ुदाई नहीं जाने वाली  आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा चन्द ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली

बशर्ते कि आदमी खरा हो

जो है उससे बेहतर चाहिए  पूरी दुनिया साफ़ करन के लिए मेहतर चाहिए  वह मेहतर मैं हो नहीं पाता  पर , रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है  कि कोई काम बुरा नहीं  बशर्ते कि आदमी खरा हो 

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए  यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए  न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए  ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए  वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए  तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए  जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए दुष्यंत कुमार

मैंने इक चिराग जला कर अपना रास्ता खोल लिया

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने काले घर में सूरज रख के तुमने शायद सोचा था मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे मैंने इक चिराग जला कर अपना रास्ता खोल लिया तुमने एक समंदर हाथ में लेकर मुझ पर ढेल दिया मैंने नूँह की कश्ती उसके ऊपर रख दी काल चला तुमने, और मेरी जानिब देखा मैंने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया मेरी खुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा मेरे एक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया मौत की शह देकर तुमने समझा था, अब तो मात हुई मैंने जिस्म का खोल उतार कर सौंप दिया और रूह बचा ली पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी ... -- गुलज़ार

मोहरे

जब वो कम उम्र ही था उसने ये जान लिया था कि अगर जीना है बड़ी चालाकी से जीना होगा आँख कि आखिरी हद तक है बिसात-ऐ-हस्ती और वो एक मामूली मोहरा है एक एक खाना बहुत सोच के चलना होगा बाज़ी आसान नहीं थी उसकी दूर तक चारों तरफ़ फ़ैले थे मोहरे जल्लाद निहायत सफ़्फ़ाक सख्त बेरहम बहुत ही चालाक अपने हिस्से में लिये पूरी बिसात उसके हिस्से में फ़क़त मात लिये वो जिधर जाता था उसे मिलता था हर नया खाना नई घात लिये वो मगर बचता रहा चलता रहा एक घर दूसरा घर तीसरा घर पास आया कभी औरों के कभी दूर हुआ वो मगर बचता रहा चलता रहा गो कि मामूली सा मोहरा था मगर जीत गया यूँ वो एक रोज़ बड़ा मोहरा बना अब वो महफूज़ है एक खाने में इतना महफूज़ कि दुश्मन तो अलग दोस्त भी पास आ नहीं सकते उसके एक हाथ में है जीत उसकी दूसरे में तन्हाई है -- जावेद अख्तर

हमें पक्का यकीन है ये कतई इस्लाम नहीं है....!!

हर बार ये इल्ज़ाम रह गया..! हर काम में कोई काम रह गया..!! नमाज़ी उठ उठ कर चले गये मस्ज़िदों से..! दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया..!! खून किसी का भी गिरे यहां नस्ल-ए-आदम का खून है आखिर बच्चे सरहद पार के ही सही किसी की छाती का सुकून है आखिर ख़ून के नापाक ये धब्बे, ख़ुदा से कैसे छिपाओगे ? मासूमों के क़ब्र पर चढ़कर, कौन से जन्नत जाओगे ? कागज़ पर रख कर रोटियाँ, खाऊँ भी तो कैसे . . . खून से लथपथ आता है, अखबार भी आजकल . दिलेरी का हरगिज़ हरगिज़ ये काम नहीं है दहशत किसी मज़हब का पैगाम नहीं है ....! तुम्हारी इबादत, तुम्हारा खुदा, तुम जानो.. हमें पक्का यकीन है ये कतई इस्लाम नहीं है....!! निदा फ़ाज़ली