वो अपनी बेटी का कन्यादान नही कर सकती क्योंकि वो विधवा है।
विधवाएं, कुछ को घर वालों ने घर से निकाल कर वृद्धाश्रम पहुंचा दिया, कुछ स्वाभिमान की मारी स्वयं पहुंच गईं तो कुछ को काशी यानी बनारस, वृंदावन में छोड़ दिया गया. वहीं, कुछ सुहृदय बच्चों ने उन्हें यह महसूस ही नहीं होने दिया कि वे त्याज्य हैं. उन्हें पहले की तरह ही गले लगाए रखा. उन के सम्मान में कोई कमी नहीं आई. उन का जीवन धन्य हो गया. और जो निराश्रित हो गईं वे नारकीय जीवन जीने को विवश हो गईं.
भारतीय समाज में "वैधव्य " की पीड़ा झेलती महिलाओं को जीवन के सभी उत्सवधर्मी रंगों से दूर कर दिया जाता है । जीवनसाथी की मृत्यु की पीड़ा और मानसिक अवसाद से गुजरती इन एकाकी महिलाओं पर सामाजिक कुरीतियां की मार जले पे नमक छिड़कने का काम करती है ।
वृंदावन छोटी-सी तीर्थनगरी में हज़ारों की तादाद में विधवाओं का बसेरा है. यहां रहने वाली विधवाओं की संख्या कितनी है, इसका ठीक से पता लगाने की ज़रूरत शायद किसी ने नहीं समझी.हर किसी की अपनी अलग कहानी है, अपनी अलग व्यथा है, लेकिन हश्र एक जैसा यानी अपने परिवार से दूर अलग वीरान ज़िंदगी.
समंदर जैसी विशाल पीड़ा को मुट्ठी भर सीने में बंद कर,जीवन के आख़िरी पड़ाव पर वृंदावन को अपना ठिकाना बनाने वाली इन अधिकांश विधवाओं के परिवार में या तो कोई बचा नहीं या फिर परिवार की बेरुख़ी की वजह से वे यहां हैं.मां धाम में रह रही 82 साल की जमुनाबाई पांडे छत्तीसगढ़ के बिलासपुर की रहने वाली हैं. घरबार छोड़कर वृंदावन का पता पूछते-पूछते यहां पहुंच गईं. जमुना बताती हैं कि पति की मौत के बाद घर में उनका सिर्फ़ एक ही बेटा है, लेकिन अपने बेटे की हरकतों की वजह से उन्हें घर छोड़ना पड़ा.जमुना कहती हैं, “मेरा बेटा रोज़ शराब पीकर आता था और जूते से मारता था. लड़का होने का मतलब ये तो नहीं कि हर समय सिर पर जूता मारो और मैं सहती रहूं.”जमुना कहती हैं कि उनकी स्थिति तो 'बांझ से भी बदतर' है क्योंकि उन्होंने बेटा तो पैदा किया, लेकिन ऐसे बेटे से संतानहीन रहना ही बेहतर है. जमुना अब भगवान से सिर्फ़ यही प्रार्थना करती हैं कि वो अकेली हैं और मरना भी अकेली ही चाहती हैं.इसी तरह रघुबीर बरसाने की रहने वाली हैं, उनके दो लड़के और चार लड़कियां हैं. वह कहती हैं कि गांव में हर रोज़ होने वाले झगड़ों के कारण वो यहां रहने चली आईं.चैतन्य विहार महिला आश्रय सदन में सैकड़ों विधवाएं रहती हैं.
अपनी व्यथा बताते हुए उनके माथे पर चिंता की लकीरें उभर आती हैं. इस सवाल के जवाब में कि वो विदिशा से वृंदावन कैसे पहुंच गईं, मिथिलेश की आंखें भर आईं.जेठ-जिठानी को याद करके मिथिलेश कहती हैं, “मैंने ज़िंदगी भर जेठ के बच्चों को अपना माना, जब तक शरीर चलता रहा, सब कुछ अच्छा था और जब शरीर ने साथ छोड़ दिया, तो ज़िल्लत भरी ज़िंदगी कब तक सहती और अब वापस नहीं जाना चाहती. यहां तक कि बीमारी की हालत में भी नहीं.”सवाल यह है कि इनका जीवन कटता कैसे है, जीवनयापन के लिए पैसे कहां से आते हैं. इनकी आमदनी के कई ज़रिए हैं, कुछ विधवाएं तो मंदिरों के किनारे हाथ पसारे दिन भर भीख मांगती हैं और उसी से उनका पेट भरता है.इसके बाद अगले दिन फिर से ज़िंदगी जीने की जद्दोजहद शुरू हो जाती है.
आमदनी का दूसरा ज़रिया है वृद्धावस्था पेंशन, सरकारी आश्रम में रहने वाली विधवाओं को दो हज़ार रुपए मिलते हैं जिनसे इनका खर्च चलता है.एक तीसरा तरीक़ा है, भजन गाकर पैसे कमाना, वृंदावन में कई आश्रम ऐसे हैं जहां हर सुबह और हर सांझ कीर्तन होते हैं.सैकड़ों की तादाद में ये विधवाएं यहां भजन-कीर्तन करती हैं और इसके एवज़ में उन्हें शाम को कुछ अनाज मिलता है.
विधवाओं के साथ होने वाले व्यवहार के सबसे दर्दनाक पहलू को उजागर करने वाली एक रिपोर्ट एक स्थानीय अख़बार में छपी, जिसके मुताबिक़ विधवाओं की मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार नहीं किया जाता, उनके शव को यमुना में फेंक दिया जाता है. उन्हें खाना नहीं मिलता और वो भीख मांगने के लिए मजबूर हैं.
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