Skip to main content

Posts

Showing posts from January, 2015

जितना कम सामान रहेगा उतना सफ़र आसान रहेगा

अब के सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई आप मत पूछिए क्या हम पे सफ़र में गुज़री था लुटेरों का जहाँ गाँव, वहीं रात हुई हर सुबह शाम की शरारत है हर ख़ुशी अश्क़ की तिज़ारत है मुझसे न पूछो अर्थ तुम यूँ जीवन का ज़िन्दग़ी मौत की इबारत है अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए जिसमें इन्सान को इन्सान बनाया जाए जिसकी ख़ुश्बू से महक जाए घर पड़ोसी का फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए आग बहती यहाँ गंगा में, ज़मज़म में भी कोई बतलाए कहाँ जा के नहाया जाए मेरा मक़सद है ये महफ़िल रहे रौशन यूँ ही ख़ून चाहे मेरा दीपों में जलाया जाए मेरे दु:ख-दर्द का तुम पर हो असर कुछ ऐसा मैं रहूँ भूखा तो तुमसे भी न खाया जाए जितना कम सामान रहेगा उतना सफ़र आसान रहेगा जितनी भारी गठरी होगी उतना तू हैरान रहेगा उससे मिलना नामुमक़िन है जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगा हाथ मिलें और दिल न मिलें ऐसे में नुक़सान रहेगा जब तक मन्दिर और मस्जिद हैं मुश्क़िल में इन्सान रहेगा

तू परेशान है, तू परेशान न हो इन ख़ुदाओं की ख़ुदाई नहीं जाने वाली

देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली ये ख़तरनाक सचाई नहीं जाने वाली  कितना अच्छा है कि साँसों की हवा लगती है आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली  एक तालाब-सी भर जाती है हर बारिश में मैं समझता हूँ ये खाई नहीं जाने वाली  चीख़ निकली तो है होंठों से मगर मद्धम है बंद कमरों को सुनाई नहीं जाने वाली  तू परेशान है, तू परेशान न हो इन ख़ुदाओं की ख़ुदाई नहीं जाने वाली  आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा चन्द ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली

बशर्ते कि आदमी खरा हो

जो है उससे बेहतर चाहिए  पूरी दुनिया साफ़ करन के लिए मेहतर चाहिए  वह मेहतर मैं हो नहीं पाता  पर , रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है  कि कोई काम बुरा नहीं  बशर्ते कि आदमी खरा हो 

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए  यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए  न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए  ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए  वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए  तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए  जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए दुष्यंत कुमार

मैंने इक चिराग जला कर अपना रास्ता खोल लिया

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने काले घर में सूरज रख के तुमने शायद सोचा था मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे मैंने इक चिराग जला कर अपना रास्ता खोल लिया तुमने एक समंदर हाथ में लेकर मुझ पर ढेल दिया मैंने नूँह की कश्ती उसके ऊपर रख दी काल चला तुमने, और मेरी जानिब देखा मैंने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया मेरी खुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा मेरे एक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया मौत की शह देकर तुमने समझा था, अब तो मात हुई मैंने जिस्म का खोल उतार कर सौंप दिया और रूह बचा ली पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी ... -- गुलज़ार

मोहरे

जब वो कम उम्र ही था उसने ये जान लिया था कि अगर जीना है बड़ी चालाकी से जीना होगा आँख कि आखिरी हद तक है बिसात-ऐ-हस्ती और वो एक मामूली मोहरा है एक एक खाना बहुत सोच के चलना होगा बाज़ी आसान नहीं थी उसकी दूर तक चारों तरफ़ फ़ैले थे मोहरे जल्लाद निहायत सफ़्फ़ाक सख्त बेरहम बहुत ही चालाक अपने हिस्से में लिये पूरी बिसात उसके हिस्से में फ़क़त मात लिये वो जिधर जाता था उसे मिलता था हर नया खाना नई घात लिये वो मगर बचता रहा चलता रहा एक घर दूसरा घर तीसरा घर पास आया कभी औरों के कभी दूर हुआ वो मगर बचता रहा चलता रहा गो कि मामूली सा मोहरा था मगर जीत गया यूँ वो एक रोज़ बड़ा मोहरा बना अब वो महफूज़ है एक खाने में इतना महफूज़ कि दुश्मन तो अलग दोस्त भी पास आ नहीं सकते उसके एक हाथ में है जीत उसकी दूसरे में तन्हाई है -- जावेद अख्तर

हमें पक्का यकीन है ये कतई इस्लाम नहीं है....!!

हर बार ये इल्ज़ाम रह गया..! हर काम में कोई काम रह गया..!! नमाज़ी उठ उठ कर चले गये मस्ज़िदों से..! दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया..!! खून किसी का भी गिरे यहां नस्ल-ए-आदम का खून है आखिर बच्चे सरहद पार के ही सही किसी की छाती का सुकून है आखिर ख़ून के नापाक ये धब्बे, ख़ुदा से कैसे छिपाओगे ? मासूमों के क़ब्र पर चढ़कर, कौन से जन्नत जाओगे ? कागज़ पर रख कर रोटियाँ, खाऊँ भी तो कैसे . . . खून से लथपथ आता है, अखबार भी आजकल . दिलेरी का हरगिज़ हरगिज़ ये काम नहीं है दहशत किसी मज़हब का पैगाम नहीं है ....! तुम्हारी इबादत, तुम्हारा खुदा, तुम जानो.. हमें पक्का यकीन है ये कतई इस्लाम नहीं है....!! निदा फ़ाज़ली