जून जुलाई का महीना अपने आप में अलग ही होता है। मुझे बेसब्री से इंतजार होता है क्यो कि दो बच्चों की छुट्टियां माँ के लिए सजा से कम नही होती।
खुल जाते हैं स्कूल और हम माओ का fix routine शुरु हो जाता है
छोटे छोटे बच्चे सुबह से जागाकर , junior Horlicks पिलाकर school की तरफ भेज दिए जाते हैं।
मासूम से बच्चे कातर(व्याकुलता) सी निगाहों से माँ को घूरते हुए किसी तरह बस में चढ़ा दिए जाते हैं ऐसा लगता है कि माँ को कह रहे हो
"जा माँ जा कुछ घंटे जी ले अपनी जिंदगी"
और कभी कभी पापा के साथ स्कूल बैग मेें dettol sanitizer लिए जो बच्चे के वजन के लगभग ही होता है स्कूल पहुँचा दिया जाते है।बच्चा पापा से आँखों में आंसू ले कर कहता है यहीं खड़े रहिएगा और पापा भी यकीं दिलाते हैं की हाँ यहाँ ही रहेंगे पढ़ के आओ तब मिलेंगे।
शिक्षा में नये प्रतिमान स्थापित हो रहे हैं। कहीं "Dy Patil" के स्कूल की एसी बस चली जा रही है तो कहीं "Vk patil "की पुरानी वाली 1 नंबर कि बस जो कभी भी खराब हो जाती है।
तेरी कमीज मेरी कमीज से सफ़ेद क्यों के आधार पर बच्चे पड़ोसियों के बच्चे से महंगे स्कूल में भेजे जा रहे हैं। ललक बच्चे को अंग्रेज बनाने की है।
पर बढती हुई स्कूल फीस में बच्चों को पढा़ना आसान नही है मेरी बेटी की class 3 की फीस के बराबर पैसो से तो मेरा MCA हो गया था। देश भर के प्राइवेट स्कूलों में इस साल 15 से 80 फ़ीसदी तक वृद्धि हुई है. हैदराबाद के एक स्कूल ने 50 फीसदी फ़ीस बढ़ा दी है. स्कूलों के कारण मिडल क्लास के हम जैसे लोग पैसा होते हुए भी ग़रीब हो गए हैं. एक जूता कंपनी के वितरक ने बताया कि सिलिगुड़ी से लेकर रायपुर तक के स्कूलों में क्यों महंगे ब्रांड के जूते ख़रीदने के लिए मजबूर किया जा रहा है. जैसे एक्शन के वेलक्रो और स्पोर्टस शूज़ की कीमत है 700 से 800 रुपये. कंपनी ने 40 फीसदी मार्जिन पर स्कूल को दिया तो 320 रुपये ही कमाएगा. महंगे ब्रांड के जूते 2000 के आते हैं, इन पर भी 40 फीसदी का मार्जिन मिलता है. इस हिसाब से स्कूल की एक जूते पर 800 रुपये की कमाई हो गई. काला जूता तो ठीक है मगर महंगे ब्रांड के लिए मजबूर करने के पीछे ये लूटतंत्र हैं जिसे आप अर्थतंत्र कहते हैं.
यही नहीं कई अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में हिन्दी बोलने पर भी फाइन लगती है. स्कूल में हिन्दी बोलने पर 300- 600 रुपये का जुर्माना भी लिया जाता है। हमारे घर में हमारे बडे भैया की किताबों से पहले भैया फिर मुझसे बडे और फिर मैने पढाई कर ली थी।पर अब छात्र पुरानी किताब का reuse न करे इसके लिए हर साल नई-नई तरकीब निकाली जाती है. पुरानी किताब बेकार हो जाए इसलिए नई किताब में एक नया चैप्टर जोड़ दिया जाता है. हर साल पुराने प्रकाशक बदल दिये जाते हैं ताकि छात्र नई किताब लेने पर मजबूर हों. स्कूल के भीतर की दुकान से किताब ख़रीदने के लिए मजबूर किया जाता है. बाहर की दुकान होती है तो वो भी स्कूल ही तय करता है कि कहां से लेनी है. कई जगहों पर इस तरह की दुकानें रसीद भी नहीं देतीं, रजिस्टर में नोट कर लेती हैं.कई स्कूलों ने तो अपनी किताबें छापनी शुरू कर दी है. वे प्रकाशक भी बन गए हैं.
हमें तो सैलरी मिलती है एक महीने की, लेकिन स्कूल को तीन महीने की फीस देनी होती है. तीन-तीन महीने की एकमुश्त फीस कहां से कोई दे. साल दर साल जितनी फीस बढती है उतना तो किसी का increment भी नही होता।
Fix फीस देने के बाद भी कुछ cash भी जमा करवाया जाता है कभी कभी जिसकी रसीद भी नहीं दी जाती।कहीं ऐसा तो नहीं कि स्कूलों के भीतर काला धन पैदा किया जा रहा है. यूपी के एक स्कूल में जनरेटर मेंटेनेंस फीस लिया जाता है. केजी क्लास के बच्चे के लिए मैगज़ीन फीस ली जाती है.ट्रांसपोर्ट और यूनिफॉर्म का मसला भी काफी बड़ा है जैसे इस साल मेरी बेटी के स्कूल ने अपनी यूनिफॉर्म ही बदल दी है। regular और sports यूनिफॉर्म के दो तीन सेट होते हुए भी यूनिफॉर्म लेनी होगी।
सरस्वती लक्ष्मी तक पहुचने की सबसे आसान माध्यम है।
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Thanks