Skip to main content
क्या मिलिए ऎसे लोगों से, जिनकी फितरत छुपी रहे
नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छुपी रहे।

खुद से भी जो खुद को छुपाए, क्या उनसे पहचान करें
क्या उनके दामन से लिपटें, क्या उनका अरमान करें
जिनकी आधी नीयत उभरे, आधी नीयत छुपी रहे
नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छुपी रहे।

दिलदारी का ढोंग रचाकर, जाल बिछाएं बातों का
जीते-जी का रिश्ता कहकर सुख ढूंढे कुछ रातों का
रूह की हसरत लब पर आए, जिस्म की हसरत छुपी रहे
नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छुपी रहे।

जिनके जुल्म से दुखी है जनता हर बस्ती हर गाँव में
दया धरम की बात करें वो, बैठ के सजी सभाओं में
दान का चर्चा घर-घर पहुंचे, लूट की दौलत छुपी रहे
नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छुपी रहे।

देखें इन नकली चेहरों की कब तक जय-जयकार चले
उजले कपड़ों की तह में, कब तक काला संसार चले
कब तक लोगों की नजरों से, छुपी हकीकत चुपी रहे
नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छुपी रहे।

क्या मिलिए ऎसे लोगों से, जिनकी फितरत छुपी रहे
नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छुपी रहे।

Comments

Popular posts from this blog

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए  यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए  न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए  ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए  वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए  तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए  जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए दुष्यंत कुमार

हमें पक्का यकीन है ये कतई इस्लाम नहीं है....!!

हर बार ये इल्ज़ाम रह गया..! हर काम में कोई काम रह गया..!! नमाज़ी उठ उठ कर चले गये मस्ज़िदों से..! दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया..!! खून किसी का भी गिरे यहां नस्ल-ए-आदम का खून है आखिर बच्चे सरहद पार के ही सही किसी की छाती का सुकून है आखिर ख़ून के नापाक ये धब्बे, ख़ुदा से कैसे छिपाओगे ? मासूमों के क़ब्र पर चढ़कर, कौन से जन्नत जाओगे ? कागज़ पर रख कर रोटियाँ, खाऊँ भी तो कैसे . . . खून से लथपथ आता है, अखबार भी आजकल . दिलेरी का हरगिज़ हरगिज़ ये काम नहीं है दहशत किसी मज़हब का पैगाम नहीं है ....! तुम्हारी इबादत, तुम्हारा खुदा, तुम जानो.. हमें पक्का यकीन है ये कतई इस्लाम नहीं है....!! निदा फ़ाज़ली

अटल बिहारी वाजपेयी

पेड़ के ऊपर चढ़ा आदमी ऊंचा दिखाई देता है। जड़ में खड़ा आदमी नीचा दिखाई देता है। आदमी न ऊंचा होता है, न नीचा होता है, न बड़ा होता है, न छोटा होता है। आदमी सिर्फ आदमी होता है। पता नहीं, इस सीधे-सपाट सत्य को दुनिया क्यों नहीं जानती है? और अगर जानती है, तो मन से क्यों नहीं मानती इससे फर्क नहीं पड़ता कि आदमी कहां खड़ा है? पथ पर या रथ पर? तीर पर या प्राचीर पर? फर्क इससे पड़ता है कि जहां खड़ा है, या जहां उसे खड़ा होना पड़ा है, वहां उसका धरातल क्या है? हिमालय की चोटी पर पहुंच, एवरेस्ट-विजय की पताका फहरा, कोई विजेता यदि ईर्ष्या से दग्ध अपने साथी से विश्वासघात करे, तो उसका क्या अपराध इसलिए क्षम्य हो जाएगा कि वह एवरेस्ट की ऊंचाई पर हुआ था? नहीं, अपराध अपराध ही रहेगा, हिमालय की सारी धवलता उस कालिमा को नहीं ढ़क सकती। कपड़ों की दुधिया सफेदी जैसे मन की मलिनता को नहीं छिपा सकती। किसी संत कवि ने कहा है कि मनुष्य के ऊपर कोई नहीं होता, मुझे लगता है कि मनुष्य के ऊपर उसका मन होता है। छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता, टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता। इसीलिए तो भगवान कृष्ण को शस्त्रों से सज्ज, रथ पर चढ़...