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By Rahat Indori

उँगलियाँ यूँ न सब पर उठाया करो
खर्च करने से पहले कमाया करो

ज़िन्दगी क्या है खुद ही समझ जाओगे
बारिशों में पतंगें उड़ाया करो

दोस्तों से मुलाक़ात के नाम पर
नीम की पत्तियों को चबाया करो

शाम के बाद जब तुम सहर देख लो
कुछ फ़क़ीरों को खाना खिलाया करो

अपने सीने में दो गज़ ज़मीं बाँधकर
आसमानों का ज़र्फ़ आज़माया करो

चाँद सूरज कहाँ, अपनी मंज़िल कहाँ
ऐसे वैसों को मुँह मत लगाया करो

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वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए  यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए  न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए  ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए  वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए  तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए  जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए दुष्यंत कुमार

हमें पक्का यकीन है ये कतई इस्लाम नहीं है....!!

हर बार ये इल्ज़ाम रह गया..! हर काम में कोई काम रह गया..!! नमाज़ी उठ उठ कर चले गये मस्ज़िदों से..! दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया..!! खून किसी का भी गिरे यहां नस्ल-ए-आदम का खून है आखिर बच्चे सरहद पार के ही सही किसी की छाती का सुकून है आखिर ख़ून के नापाक ये धब्बे, ख़ुदा से कैसे छिपाओगे ? मासूमों के क़ब्र पर चढ़कर, कौन से जन्नत जाओगे ? कागज़ पर रख कर रोटियाँ, खाऊँ भी तो कैसे . . . खून से लथपथ आता है, अखबार भी आजकल . दिलेरी का हरगिज़ हरगिज़ ये काम नहीं है दहशत किसी मज़हब का पैगाम नहीं है ....! तुम्हारी इबादत, तुम्हारा खुदा, तुम जानो.. हमें पक्का यकीन है ये कतई इस्लाम नहीं है....!! निदा फ़ाज़ली

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