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Showing posts from July, 2010
लफ़्ज़ एहसास—से छाने लगे, ये तो हद है   लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है   आप दीवार उठाने के लिए आए थे   आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है   ख़ामुशी शोर से सुनते थे कि घबराती है   ख़ामुशी शोर मचाने लगे, ये तो हद है   आदमी होंठ चबाए तो समझ आता है   आदमी छाल चबाने लगे, ये तो हद है   जिस्म पहरावों में छुप जाते थे, पहरावों में—   जिस्म नंगे नज़र आने लगे, ये तो हद है   लोग तहज़ीब—ओ—तमद्दुन के सलीक़े सीखे   लोग रोते हुए गाने लगे, ये तो हद है
किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम   किसी का हाथ उठ्ठा और अलकों तक चला आया   वो बरगश्ता थे कुछ हमसे उन्हें क्योंकर यक़ीं आता   चलो अच्छा हुआ एहसास पलकों तक चला आया   जो हमको ढूँढने निकला तो फिर वापस नहीं लौटा   तसव्वुर ऐसे ग़ैर—आबाद हलकों तक चला आया   लगन ऐसी खरी थी तीरगी आड़े नहीं आई   ये सपना सुब्ह के हल्के धुँधलकों तक चला आया
खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही   अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही   कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप   जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही   हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया   हमपर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही   मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा   या यूँ कहो कि बर्क़ की दहशत नहीं रही   हमको पता नहीं था हमें अब पता चला   इस मुल्क में हमारी हक़ूमत नहीं रही   कुछ दोस्तों से वैसे मरासिम नहीं रहे   कुछ दुशमनों से वैसी अदावत नहीं रही   हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग   रो—रो के बात कहने की आदत नहीं रही   सीने में ज़िन्दगी के अलामात हैं अभी   गो ज़िन्दगी की कोई ज़रूरत नहीं रही

धडकते साँस लेते

धडकते साँस लेते , चलते मैंने देखा है कुछ तो है जो अपने मे मैंने बदलते देखा है जब होते हो तुम साथ मेरे , राह की  मुश्किलों  को हाथ मलते मैंने देखा हैं बादलो से धूप चट्केगी,  मिलेंगी हमे हमारी मंजिल, तेरी आँखों मैं अपना सपना पलते मैंने देखा है. ...................
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है। एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों, इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है। एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी, आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है। एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी, यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है। निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी, पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है। दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर, और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

dushyant kumar